मैं बादलों को छूने
आगे बढ़ती हूँ,
और चलते चलते कहीं
भीड़ में मिल जाती हूँ।
उस भीड़ से बैचैन होकर
सपनों की तलाश में,
उस रास्ते को छोड़ कर
कहीं और चली जाती हूँ।
कुछ गुमनाम सा
सूनसान सा
कहीं मोड़ आता है,
किसी के साथ के इन्तजार में
वहीं रुक जाती हूँ।
उस बेनाम राह पर जाता कोई
दिखता है रात को,
पर वो रुकता नहीं
और न कोई जवाब आता है।
सोचती हूँ आगे अकेले ही चली जाऊँ,
पर फिर एक परछाईं दिखती है,
और दिल घबराता है।
मैं साँसे रोक कर अपनी
मैं पलकें पोंछ कर अपनी
वहीं थम कर, मैं रुक जाती हूँ।
किसी हमराही के आने का
करके कुछ दिन इन्तजार
मैं वापस लौट जाती हूँ,
ख्वाहिशें भूल कर अपनी
मैं भीड़ में मिल जाती हूँ।
मैं बादलों को छूने ..
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